मजाक डाॅट काॅम
राजीव मणि
इस नश्वर संसार में मानव ही एक ऐसा सामाजिक पशु है, जिसके बीच चढ़ावे की काफी महिमा है। इसे ‘सुविधा शुल्क’ के नाम से भी जाना जाता है। जैसा नाम से ही प्रतित होता है, किसी काम को करवाने या अपना स्वार्थ साधने के लिए चढ़ाया गया शुल्क ! और इसकी कहानी भी ठीक उतनी ही पुरानी है, जितना मानव का इतिहास। प्राचीन काल से लेकर अबतक इसकी बदौलत बड़े-बड़े कार्य सिद्ध हुए हैं। इसकी कृपा से कइयों के राजपाट संवर गए। कइयों की लाइफ ही बन गयी। कहने का मतलब कि चढ़ावा या सुविधा शुल्क के जरिये कोई राजा भोज बना, कोई गंगू तेली भी। और हां, यह सुविधा शुल्क कई बार मुंह बंद रखने को भी दिये जाते हैं।
यहां यह भी समझ लेना ठीक रहेगा कि चढ़ावे का रंग-रूप कैसा होता है। तो जनबा, यह तो आप पर निर्भर करता है कि आपकी श्रद्धा कितनी है। आप चाहें तो मिठाइयां चढ़ाएं, चाहें तो रुपए-पैसे। हां, आप कार, बंगला, टीवी, फ्रीज भी चढ़ा सकते हैं। कुछ लोग तो यहां दारू-मुरगा भी चढ़ाते हैं। कुछ चढ़ावे में पार्टी देते हैं। कुछ वेश्याएं भी। इतिहास गवाह है कि इसी धरती पर कुछेक ने अपनी पत्नी या बेटी को भी सुविधा शुल्क के रूप में चढ़ा दिया। हालांकि पत्नी या बेटी को सुविधा शुल्क के रूप में दिये जाने की घटनाएं मुगल काल में सबसे ज्यादा हुईं। लेकिन, आज के सभ्य समाज में भी चोरी-छिपे यह सब होता रहा है। इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हालांकि ऐसे चढ़ावे अब बहुत कम देखने को मिलते हैं।
खैर, बात ताजा चढ़ावे की ही कर लेते हैं। कोहराम मचा है कि इटली के उड़नखटोले के सौदे में कई लोगों को चढ़ावे के रूप में मोटी रकम दी गयी। मोटी रकम पाने वालों में कई बड़े राजनेताओं के नाम शामिल हैं। मेरी दिलचस्पी अभी इस छोटी खबर में नहीं। वैसे नेता का नाता तो विवाद, घोटाला, रिश्वत आदि से पुराना रहा है। मेरी दिलचस्पी अभी इस बात में है कि नेताओं के साथ कुछ बड़े पत्रकारों को भी ‘मैनेज’ करने के लिए चढ़ावा चढ़ाया गया। हालांकि अभी तक उन बड़े पत्रकारों के नामों का खुलासा नहीं हुआ है। हो सकता है, अगर आगे अच्छे दिन आयेंगे, तो नामों के खुलासे भी हो जायेंगे। और तब पता चल सकेगा कि जितना शोर मचा हुआ है, उसमें कुछ सच्चाई है भी या नहीं।
वैसे, मीडिया का करप्शन कनेक्शन कोई नयी बात नहीं। आमजन को भी यह पता है। अब तो खुलेआम लोग कहने लगे हैं कि कुछ पत्रकार तो चंद रुपए में बिक जाते हैं। मैं भी इसी बिरादरी से हूं। लेकिन, लोगों की भावनाओं को समझता हूं। ये वही लोग हैं जो यह भी कहते हैं कि अखबार या टीवी में दिया है, तो सच ही होगा। यह उनका विश्वास है, अटूट! इसी कारण मैं लोगों की बात सुनकर बुरा नहीं मानता। इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात भी नहीं। वैसे शिकवा-शिकायत पर तो अपनों का ही अधिकार होता है।
पिछले दिनों एक परिचित मुझे पटना में एक लोकल चैनल के दफ्तर में ले गये। वहां एक व्यक्ति से मेरा परिचय कराया। मुझे बताया गया कि ये चैनल के हेड हैं। फिर वे आपस में बातें करने लगें। उन दोनों की बात सुनकर मुझे काफी हैरानी हुई। दो घंटे के वार्तालाप में वे सिर्फ वसूली और बड़े-बड़े अधिकारियों, नेताओं से अपने कनेक्शन पर ‘बकलोली’ करते दिखे। तथाकथित चैनल हेड यह बार-बार बताते नहीं थकते थे कि कैसे उनके दफ्तर में रात दस के बाद बड़े-बड़े पुलिस अधिकारी और नेता आकर घंटों बैठते हैं। और यहीं से कैसे-कैसे ‘खेल’ हो जाते हैं। उस दिन मुझे लगा था, मेरा जीवन कितना व्यर्थ है। अपने बीस वर्षों की पत्रकारिता में मैं सिर्फ समाज, गरीब, मुसहर, न्याय जैसे शब्दों के मायाजाल में ही उलझा रहा। और तभी मुझे पता चला, इससे बाहर एक अनोखी ‘बहार की दुनिया’ भी है। यहां पैसा, शोहरत, अय्यासी का पूरा सामान है!
चैनल की बात निकली है तो कुछ और बात कर ही लेता हूं। आज चैनलों की भरमार है। और चैनल में काम करने वालों की तो पूछिए ही मत ! अब तो ऐसे-वैसे भी चैनल में आसानी से बहाल हो जाते हैं, जो ठीक से हिन्दी भी नहीं बोल पाते। आपने देखा होगा, कैसे-कैसे सवाल पूछे जाते हैं।
पटना में ही अगलगी की घटना हुई थी। करीब दो सौ झोपड़ियां जलकर राख हो गयीं। मैं भी वहां पहुंचा था। एक लोकल चैनल के पत्रकार ने पीड़ित से पूछ लिया - ‘‘आपको कैसा लग रहा है ?’’ मैं बगल में खड़ा था। सवाल वे पूछ रहे थे, शर्म मुझे आ रही थी। आखिर इन्हीं कारणों से पूरी बिरादरी बदनाम होती है। खैर, मैं अखबार, पत्रिका से जुड़ा रहा हूं। उसी की बात करता हूं।
तब मुझे पटना से प्रकाशित सबसे बड़े हिन्दी समाचार पत्र में काम करने का अवसर मिला था। मैं वहां लंबे समय तक रहा। मुझे पता चला कि जिलों में कार्यरत अधिकांश पत्रकारों को वेतन नहीं मिलता, प्रति खबर दस रुपए दिये जाते हैं। मैं सोच में पड़ गया, कैसे उन बेचारों का गुजारा चलता होगा। सुबह से देर रात तक वे भाग-दौड़ करते हैं। प्रतिदिन अगर पांच खबरें भी प्रकाशित हों, तो सिर्फ पचास रुपए ही बनते हैं। इससे ज्यादा का पेट्रोल तो प्रतिदिन बाइक पी जाती होगी।
कुछ समय बाद मुझे पटना से बाहर व्यक्तिगत काम से जाना पड़ा। संयोग से एक पत्रकार मिल गये। परिचय हुआ, बातों का सिलसिला चल पड़ा। वे बताने लगे - ‘‘भैया, अब तो मीडिया-हाऊस ही अप्रत्यक्ष रूप से वसूली करने को प्रेरित करता है। समझने की बात है, अखबार के काम से दिनभर बाहर रहने वाले पत्रकार को उसके परिश्रम का पुरस्कार पचास रुपए मिले, तो क्या वह हवा पीकर रह सकता है ? सच्चाई यह है कि जिले के अधिकांश पत्रकारों का रहन-सहन किसी रईस की तरह होता है। तो फिर कहां से बरसते हैं पैसे ! और जो पत्रकार इस धारा में नहीं बहते, वे अपने घर पर भार ही होते हैं। अकाल मौत को प्राप्त होते हैं। और वही अखबार, उनकी मृत्यु की दो लाइन की खबर भी प्रकाशित नहीं करता !
कहा जाता है कि पत्रकारों का काम ही खुद ब खुद उनका परिचय दे देता है। लेकिन, दुखद है कि आजकल के पत्रकार खुद को काम से नहीं, जबान से बड़ा बताने में लगे हैं। ये उन गरीबों की नहीं सुनते, जो सबसे ज्यादा उनपर विश्वास करते हैं। ये उन गरीबों के पास नहीं जाते, जो आज भी उन्हें सबसे ज्यादा सम्मान देते हैं। ये लाल बत्ती के पीछे भागने वाले पत्रकार हैं। वीआईपी से सटे रहने वाले जीव हैं। जिस तरह कोई नेता वोट बैंक के हिसाब से काम करता है, उसी तरह ये पत्रकार लाभ-हानि को ध्यान में रख काम करते हैं।
ये उन कार्यक्रमों में ज्यादा जाना पसंद करते हैं, जहां खाने-पीने की पूरी व्यवस्था हो। साथ ही, उन कार्यक्रमों को ज्यादा महत्व देते हैं, जहां गिफ्ट बांटी जाती हो। लेकिन, वैसी जगह जाना पसंद नहीं करते, जहां ना खाने-पीने की व्यवस्था हो और ना गिफ्ट मिले। ये ‘पेड न्यूज’ को खास खबर बना डालते हैं। इनमें विज्ञापन को भी खबर बना डालने का हुनर होता है। चुनाव का ये बेसब्री से इन्तजार करते हैं। बड़े नेताओं के कार्यक्रमों में जाने की आपाधापी मचाते हैं। ये दूसरों या अपने जूनियर की खबर को भी अपनी खबर बना लेते हैं। ये सच को झूठ और झूठ को सच बनाने के खिलाड़ी होते हैं। ये वैसे लोग हैं, जो अपने ऊपर लगे इल्जाम से खुद ही अपनी अदालत में अपने कुतर्कों से बरी हो जाते हैं। क्योंकि यह है मीडिया का करप्शन कनेक्शन।