COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

अछूत की शिकायत

 दो दलित कविताएं 
हीरा डोम
हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के साहेब से मिनती सुनाइबि।
हमनी के दुख भगवानओं न देखता ते,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बानि जाइबिजां,
हाय राम! धसरम न छोड़त बनत बा जे,
बे-धरम होके कैसे मुंहवा दिखइबि॥१॥
खंभवा के फारी पहलाद के बंचवले।
ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले।
धोती जुरजोधना कै भइया छोरत रहै,
परगट होके तहां कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवाँ कै पलले भभिखना के,
कानी उँगुरी पै धैके पथरा उठले।
कहंवा सुतल बाटे सुनत न बाटे अब।
डोम तानि हमनी क छुए से डेराले॥२॥
हमनी के राति दिन मेहत करीजां,
दुइगो रूपयावा दरमहा में पाइबि।
ठाकुरे के सुखसेत घर में सुलत बानीं,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।
हकिमे के लसकरि उतरल बानीं।
जेत उहओं बेगारीया में पकरल जाइबि।
मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानीं,
ई कुल खबरी सरकार के सुनाइबि॥३॥
बभने के लेखे हम भिखिया न मांगबजां,
ठकुर क लेखे नहिं लउरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम जोरबजां,
अहिरा के लेखे न कबित्त हम जोरजां,
पबड़ी न बनि के कचहरी में जाइबि॥४॥
अपने पहसनवा कै पइसा कमादबजां,
घर भर मिलि जुलि बांटि-चोंटि खदबि।
हड़वा मसुदया कै देहियां बभनओं कै बानीं,
ओकरा कै घरे पुजवा होखत बाजे,
ओकरै इलकवा भदलैं जिजमानी।
सगरै इलकवा भइलैं जिजमानी।
हमनी क इनरा के निगिचे न जाइलेजां,
पांके से पिटि-पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमने के एतनी काही के हलकानी॥५॥
यह कविता महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ (सितंबर 1914, भाग 15, खंड 2, पृष्ठ संख्या 
512-513) में प्रकाशित हुई थी।


मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

अदम गोंडवी
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्णा का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!
साभार: कविता कोश

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

एक नेता का कबूलनामा

 मजाक डाॅट काॅम 
राजीव मणि 
चुनाव की घोषणा हो चुकी थी। सीट बंटवारे की पहली लिस्ट पार्टी जारी कर चुकी थी। कई नेताओं के नाम इस लिस्ट में नहीं थे। सभी असंतुष्ट नेता पार्टी कार्यालय में आकर हंगामा मचा रहे थे। कुछ नेता ‘पार्टी अध्यक्ष मुर्दाबाद’ के नारे लगा रहे थे, तो कुछ गमला-मेज-कुरसी पटक रहे थे। लोटन दास अपनी धोती खोलकर प्रवेश द्वार पर बिछा धरने पर बैठ गये। अन्य नेताओं से चिल्लाकर बोले, ‘‘भाइयों, आप भी इस मनमानी के खिलाफ हमारा साथ दें। पैसे देकर खरीदे गये हैं टिकट ! इसके खिलाफ हम यहां नंग-धड़ंग धरना देंगे, प्रदर्शन करेंगे।’’ 
लोटन दास की बात सुनकर कुछ और नेता वहां आ गये। सभी धोती-कुरता खोलने लगे। भीड़ में से आवाज आयी, ‘‘नहीं चलेगी, नहीं चलेगी, सौदेबाजी नहीं चलेगी।’’ 
कुछ ही देर में मीडियाकर्मी वहां पहुंच गये। दर्जनों कैमरा देख नेताओं में और जोश आ गया। कुछ तो अपनी चड्डी उतारने लगे, लेकिन बगलवाले ने ऐसा करने से रोका। फुसफुसाकर नेता को बताया, ‘‘चैनल पर लाइव आ रहा है।’’ 
दूसरी तरफ शनिचर महतो मैदान में लोट रहे थे। चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे, ‘‘एक बीघा जमीन बेचकर पैसे दिये थे। मेरी तीनों पत्नियां मना कर रही थीं। बेटा घर छोड़कर चला गया। बेटी एक कार्यकर्ता के साथ भाग गयी। फिर भी मैं टिकट के लिए रात-दिन लगा रहा। पैसे लेकर भी मुझे टिकट नहीं दिया गया। अब मैं कौन-सा मुंह लेकर घर जाऊं।’’ इतना बोलते ही शनिचर की हालत खराब हो गयी। ... और फिर, हृदयगति रुक जाने से उनकी मौत हो गयी। 
इसपर पार्टी कार्यालय में जमकर हंगामा मचा। भारी संख्या में पुलिस आ गयी। डंडे चले। टीवी पर लाइव चलता रहा। और देखते ही देखते यमराज को शनिचर महतो की मौत की खबर मिल गयी। पलक झपकते यमराज वहां पहुंच गये और अपने भैसा पर शनिचर महतो की आत्मा को जबरन बैठा चलते बने। 
यमराज ने चित्रगुप्त के दरबार में लाकर शनिचर को पटक दिया। चित्रगुप्त ने इशारे से पूछा, ‘‘कौन है यह ?’’ 
‘‘महाराज, अभी-अभी मरा है। नाम शनिचर महतो है। खुद को वहां नेता बताता था। चुनाव में टिकट नहीं मिलने का दर्द बर्दाश्त नहीं कर सका। हृदयगति रुक जाने से इसकी मृत्यु हो गयी।’’ यम ने हाथ जोड़कर कहा। 
‘‘ठीक है, शनिचर, तुम कठघरे में आ जाओ। तुम्हारे पाप-पुण्य का हिसाब-किताब हो जाने पर ही यह निर्णय लिया जाएगा कि तुम्हें स्वर्ग भेजना है या नरक।’’ चित्रगुप्त ने कड़ककर कहा। 
शनिचर महतो दुखी मन से कठघरे में आ गये। उनसे कुछ पूछा जाता, इससे पहले ही बोल पड़े, ‘‘महाराज, या तो हमें स्वर्ग भेजिए या फिर से धरती पर। हम जिन्दगी भर जनता की सेवा किये हैं। हमें यह मौका मिलना ही चाहिए ...।’’ 
बीच में ही चित्रगुप्त महाराज बोल उठे, ‘‘कमबख्त, दुष्ट, इसे भी क्या तुम धरती समझते हो ? जब कुछ पूछा जाए तो बोलना।’’ फिर कुछ फाइल निकालकर चित्रगुप्त देखने लगे। कुछ देर बाद नाराज होते हुए तेज आवाज में बोले, ‘‘दुष्ट, तुम पर पहला आरोप यही है कि तुमने अबतक जनता को लूटा है।’’ 
‘‘नहीं महाराज, यह गलत है, बल्कि लूटा तो मैं गया हूं। सारे खेत बेचकर टिकट के लिए पैसे दिये थे, टिकट भी नहीं मिला ! और इसी गम में मुझे अपने प्राण गंवाने पड़े।’’ शनिचर ने विनम्र भाव से कहा। 
‘‘तुमने अपने स्वार्थ में खेत बेचकर टिकट पाने के लिए पैसे दिये थे। इसमें जनता का क्या भला ? पापी, तुमने यह भी नहीं सोचा कि तुम्हारे बीवी-बच्चों का क्या होगा ?’’ चित्रगुप्त नाराज हुए। 
‘‘क्षमा महाराज, मैं तो ...।’’ 
‘‘दुष्ट, तुमने आजतक जनता के लिए क्या किया ? अपनों के बीच ठेके बांटे, कमीशन के पैसों से जमीन-जायदाद बनाया। गरीब-असहायों की जमीन हड़प ली। मकान पर कब्जा जमाया। अबलाओं की इज्जत लूटी। बेशरम !’’ चित्रगुप्त क्रोधित हो गये। 
‘‘यह सब झूठ है महाराज, किसी ने गलत खबर दी है। पूरा इलाका जानता है कि ...।’’ 
चित्रगुप्त बीच में ही बोले, ‘‘क्या यह सच नहीं कि तुमने तीन शादियां की हैं ?’’ 
‘‘सच है महाराज।’’ 
‘‘क्या तुमने बलात्कार के आरोप से बचने के लिए दूसरी शादी नहीं की थी ?’’ 
शनिचर कुछ देर सिर झुकाए खड़ा रहा। फिर बोला, ‘‘की थी महाराज।’’ 
‘‘तो क्या तीसरी शादी के बारे में भी मुझे ही भेद खोलना पड़ेगा।’’ 
‘‘मैं अपना गुनाह कबूलता हूं महाराज।’’ 
चित्रगुप्त कुछ देर शनिचर महतो को देखते रहे, फिर कुछ सोचकर बोले, ‘‘शनिचर, तुम मान चुके हो कि तुम्हारे ऊपर लगाया गया पहला आरोप सही है। अब मैं तुम्हें दूसरा आरोप बताता हूं।’’ चित्रगुप्त कुछ क्षण शनिचर का चेहरा देखते रहे। वे कठघरे में खड़ा-खड़ा डर रहे थे, ना जाने चित्रगुप्त क्या आरोप लगा बैठे। मन में सोच रहे थे, आखिर चित्रगुप्त को यह सब जानकारी कहां से मिल गयी। धरती पर तो आजतक किसी ने इस तरह आरोप लगाने का साहस नहीं किया। तभी पूरे दरबार में कड़क आवाज गूंजी, ‘‘तुमपर दूसरा आरोप है कि तुमने अपने जीवन में जमकर अय्यासी की। इसी अय्यासी के कारण अपने घर-परिवार को उपेक्षित रखा।’’ 
शनिचर अंदर तक कांप गये। जिस बात की आशंका थी, वही हुई। वे धीमी आवाज में बोले, ‘‘महाराज, अभी आपने जो जिक्र किया था, उसके अलावा कुछ नहीं किया।’’ 
शनिचर की बात सुनकर चित्रगुप्त फिर क्रोधीत हो गये, ‘‘नालायक, तुम क्या समझते हो, यह तुम्हारी धरती है, पार्टी कार्यालय है ? तुम क्या-क्या गुल खिलाकर यहां आये हो, मुझे पता नहीं ? अगर तुम ऐसा सोचते हो, तो यह तुम्हारी भूल है। मैं सब जानता हूं। यहीं से सारा खेल देखा करता हूं। लेकिन, फैसला सुनाने से पहले मैं तुम्हारे ही मुंह से यह सब सुनना चाहता हूं। बाद में यह ना कहना कि मुझे सफाई का मौका नहीं दिया गया। यह चित्रगुप्त का दरबार है, और यहां सबको अपनी बात रखने का बराबर मौका दिया जाता है। इस दरबार के न्याय की चर्चा तीनों लोक, दसों दिशाओं में होती है। क्या तुम भूल रहे हो ?’’ 
‘‘क्षमा महाराज, क्षमा ! मैंने कुछ और युवतियों की इज्जत लूटी है। कभी रैली के बहाने राजधानी ले जाने पर, कभी काम करवाने का लालच देकर। लेकिन, मुझे ठीक-ठीक संख्या नहीं मालूम। स्मरण नहीं है महाराज।’’ 
चित्रगुप्त को अंदर से काफी गुस्सा आ रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि अपनी खड़ाऊं फेंककर ही शनिचर को मार बैठेंगे। लेकिन, उन्होंने संयम से काम लिया। सहज होते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारी बेटी क्यों तुम्हारे ही कार्यकर्ता के साथ भाग गयी ?’’ 
‘‘मैं अपना दायित्व ठीक से नहीं निभा सका, महाराज। मैं तो वरुण सोनार को भला आदमी समझता था। उसके लिए क्या नहीं किया। अधिकांश ठेके उसी को दिये। जब वह सामने आता था, हाथ जोड़े रहता था। उसके मुंह से तो कोई आवाज ही नहीं निकलती थी। मेरे कदमों में बैठा रहता था। मेरे एक इशारे पर घर-बाहर का सारा काम कर दिया करता था। उसकी बनावटी ईमानदारी ने मुझे धोखा दिया, महाराज। मुझे क्या मालूम था कि वह घर का काम करने के बदले कौन-सा काम कर रहा है।’’ इसके आगे शनिचर कुछ बोल ना सका। मुंह लटकाये खड़ा रहा। 
‘‘क्या तुम वरुण सोनार से हर ठेके में कमीशन नहीं खाते थे ?’’ 
‘‘खाता था महाराज।’’ 
‘‘तो फिर किस मुंह से कह रहे हो कि जनता के सेवक हो ?’’ 
‘‘हूं महाराज, मैंने जनता की काफी सेवा की है। गलियां, सड़कें, पुल, पुलिया, काफी कुछ बनवाया हूं।’’ शनिचर के चेहरे पर थोड़ी चमक दिखी। 
‘‘मुझे भी ठगने चला है शैतान।’’ चित्रगुुप्त डांटते हुए बोले, ‘‘क्या तुमने खुद कमाकर ये सारी चीजें बनवायी थीं ? जनता के पैसों से बनवाया, उसमें भी कमीशन खाकर हीरो बनता है। दुष्ट, अगर सेवा की भावना ही होती, तो टिकट ना मिलने पर अपनी जान क्यों देता। क्या जनता की सेवा के लिए चुनाव लड़ना जरूरी था ? तुम बिना चुनाव लड़े जनता की सेवा नहीं कर सकते थे, किसी ने मना किया था ?’’ 
‘‘नहीं महाराज, किसी ने मना नहीं किया था।’’ इससे ज्यादा शनिचर कुछ बोल ना सका। 
‘‘तो तुम मान रहे हो कि जनता को लूटने के लिए ही तुमने राजनीति की राह ली ?’’ 
शनिचर के मुंह से कुछ नहीं निकल सका। सिर्फ ‘हां’ में सिर हिलाकर रह गया। चित्रगुप्त ने राहत की सांस ली। रुककर बोले, ‘‘तुम्हारे ऊपर लगा यह आरोप भी सच साबित होता है। दरअसल तुम धरती के भार थे। तुम्हारे मरने से धरती पर एक पापी कम हो गया। अब बताओ, तुम्हारा पुत्र घर छोड़कर क्यों गया ?’’ 
‘‘उसे मेरा राजनीति में आना पसंद नहीं था, महाराज। वह हमेशा मुझे इससे दूर रहने की सलाह देता था। लेकिन, मैं उसकी बात ...।’’ इतना कहकर शनिचर चुप हो गया। 
‘‘देखा पापी, तुम्हारा बेटा भी तुम्हें पसंद नहीं करता था। बीवी तुमसे घृणा करती थी। और तुम जनता के सेवक बने फिरते थे।’’ चित्रगुप्त ने गुस्से में कहा।
चित्रगुप्त का क्रोध देखकर शनिचर की सारी नेतागिरी हवा हो गयी। उसे अब काफी डर लग रहा था कि चित्रगुप्त ना जाने क्या आरोप लगा दें। उनके कैसे-कैसे प्रश्नों का सामना करना पड़े। चित्रगुप्त के प्रश्नों से बचने के लिए शनिचर बीच में ही बोल पड़ा, ‘‘महाराज, अब मैं ना स्वर्ण जाना चाहता हूं और ना ही धरती पर, मुझे नरक में ही भेज दें। मैं अपने सारे गुनाह कबूल करता हूं। मैं पापी हूं, दुष्ट, नालायक और वह सबकुछ हूं, जो इस तरह के व्यक्ति को कहा जाता है। कृपया मुझे नरक भेज दें, महाराज।’’ 
शनिचर की बात पर चित्रगुप्त उसे तीरछी नजर से देखने लगे और बोले, ‘‘यह तुम्हारा अनुरोध है या मुझे आदेश दे रहे हो !’’
‘‘मैं आपसे अनुरोध कर रहा हूं महाराज।’’
‘‘हूं ... ठीक है। जाओ, मैं तुम्हें नरक भेजता हूं। वहां तुम्हारे कई साथी व कार्यकर्ता पहले से ही सजा भोग रहे हैं। तुम भी उनके साथ जाकर काम में लग जाओ। और हां, देखो ध्यान रहे, वहां कोई ऐसा काम ना करना जिससे नरक की व्यवस्था बिगड़ जाये।’’ सभा यहीं खत्म की जाती है। चित्रगुप्त उठकर चल देते हैं। जाते-जाते नीचे धरती पर झांककर देखते हैं, शनिचर महतो के सम्मान में एक शोकसभा का आयोजन किया गया था। एक वक्ता काफी गंभीर हो बोल रहा था, ‘‘शनिचर जैसा राजनेता का यूं चले जाना हमारे समाज के लिए काफी दुखदायी है। वे एक ईमानदार, सच्चे व महान नेता थे। स्वर्ग में ईश्वर उन्हें शान्ति दे।’’