COPYRIGHT © Rajiv Mani, Journalist, Patna

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रविवार, 9 मार्च 2014

आॅक्सफैम के समारोह में नन्हीं आरती ने जमाया रंग

न्यूज@ई-मेल
आलोक कुमार
 27 फरवरी, 2014 को पटना में झारखंड व बिहार के 23 सहयोगी संस्थाओं के लोगों के साथ कुल 47 लोगों को सम्मानित किया गया। इस अवसर पर बिहार विधान सभा के अध्यक्ष उदय नारायण चैधरी, पद्मश्री सुधा वर्गीज, राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग के प्रधान सचिव व्यास मिश्रा, आॅक्सफैम इंडिया के क्षेत्रीय प्रबंधक कुमार प्रवीण, प्रगति ग्रामीण विकास समिति के सचिव प्रदीप प्रियदर्शी, एकता परिषद बिहार संचालन समिति की सदस्य मंजू डंुगडुंग, दलित अधिकार मंच के प्रांतीय संयोजक कपिलेश्वर राम ने मिलकर मुजफ्फरपुर के षिवनाथ पासवान, समस्तीपुर के चन्द्रशेखर राय, बांका के भुनेश्वर तुरी, बांका के भोला यादव, हजारीबाग के एडमोन सोय, सीतामढ़ी के ब्रह्मदेव सिंह, सीतामढ़ी की शबनम प्रवीण, गया की सविता कुमारी, पटना की आरती कुमारी, गुमला की सुशीला तिर्की, हजारीबाग की गीता देवी और अनीता कुमारी, नालंदा की मालती देवी और कमला देवी के साथ अन्य लोगों को सम्मानित किया।
इस अवसर पर बिहार विधान सभा के अध्यक्ष उदय नारायण चैधरी ने कहा कि पहले आॅक्सफैम इंडिया द्वारा रिलिफ और स्वास्थ्य शिक्षा पर कार्य किया जाता था। अब जमीन, जीविका एवं अन्य मुद्दों को लेकर भी कार्य किया जा रहा है। इस मौके पर राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग के प्रधान सचिव व्यास मिश्रा ने कहा कि सम्मान समारोह में आए प्रवर्तक परिवर्तन के वाहक हैं। आप समाज में रहकर विकास कार्य कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि जमीन से ही लोगों की पहचान होती है। अगर आपके पास जमीन नहीं है, तो पहचान पत्र के अलावा अन्य कागजात बनवाने में दिक्कत होती है। इसलिए सरकार ने बड़े पैमाने पर वासगीत पर्चा निर्गत करने की योजना बनायी है।
योजना विभाग के प्रधान सचिव विजय प्रकाश ने कहा कि आज बुनियादी शिक्षा पर जोर दी जा रही है। इस अवसर पर पद्मश्री सुधा वर्गीज, प्रदीप प्रियदर्शी, कपिलेश्वर राम, रामस्वरूप, अरविन्द आदि ने भी अपने-अपने विचार व्यक्त किए।
इस समारोह में पटना जिले के दानापुर प्रखंड के शिकारपुर गांव की आरती कुमारी को सबसे छोटी उम्र का एजेंट ऑफ चेंज चुना गया। आरती सिर्फ 11 वर्ष की है। वह गांवों में जागरूकता अभियान चला रही है। वह घर-घर जाकर माता-पिता को बताती है कि आप अपनी बेटियों को स्कूल भेजें। वयस्कों से कहती है कि लड़का और लड़की के बीच में किसी तरह का भेदभाव न करें। इस मौके पर उसने लड़कियों को संदेश दिया कि ‘केवल खाना बनाने से काम नहीं चलेगा’, जो सर्वश्रेष्ठ संदेश साबित हुआ। आरती उत्क्रमित मध्य विघालय में पढ़ती है। यहां शौचालय नहीं था। उसने कुछ लड़कियों व संस्था के साथ मिलकर शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव अमरजीत सिन्हा को पत्र लिखा, इसके बाद स्कूल में शौचालय बनाया गया। वह 7वीं कक्षा में पढ़ती है। उसे एसोसिएशन फाॅर प्रोमोशन आॅफ क्रिएटिव लर्निंग से सहायता मिलती है।
मुजफ्फरपुर जिले के कुढ़नी प्रखंड के छाजन हरिशंकर पूर्वी पंचायत के छाजन गांव में रहने वाले षिवनाथ पासवान को भी सम्मानित किया गया। वे मैट्रिक तक पढ़े हैं। मगर अपने बच्चों को बीए पार्ट-2 तक पढ़ा सके हैं। षिवनाथ पासवान कहते हैं कि जन संगठन के बल पर महादलित मुसहर समुदाय के 147 परिवारों को मैंने 3 डिसमिल जमीन दिलवायी। इसके अलावा षिक्षा के क्षेत्र में रुचि जगायी। समुदाय में शराब की आदत को छुड़वाया। बचत की प्रवृति पैदा की। लोगों को सामाजिक सुरक्षा योजना का लाभ दिलवाया। कालाजार और टीवी से पीडि़त लोगों का इलाज करवाया। वे कहते हैं कि मैं अपनी पंचायत का सरपंच हूं। मैं पिछले छह सालों से एकता परिषद कुढनी प्रखंड का अध्यक्ष हूं। इसी तरह कई अन्य लोगों को भी सम्मानित किया गया।
लेखक परिचय : आलोक कुमार ने पटना विश्वविद्यालय से ग्रामीण प्रबंधन एवं कल्याण प्रशासन में डिप्लोमा किया है। ये पिछले कई वर्षों से समाजसेवी के रूप में कार्य कर रहे हैं। दलितों, महादलितों के बीच जाना, उनका दुख-दर्द सुनना और उसे दूर करने का प्रयास करना इनका कार्य है। खासकर मुसहर समुदायों के बीच ये काफी लोकप्रिय हैं।

आदिवासियों से ‘सही लोकतंत्र’ सीखने की जरूरत

WRITER : Glaidsan Dungdung
दुनिया में बंदूक के बगैर सच्चा लोकतंत्र अगर कहीं है, तो वह सिर्फ आदिवासी समाज के पास। इसलिए जो लोग सही मायने में लोकतंत्र चाहते हैं, उन्हें आदिवासियों से सीखना चाहिए। कारण कि सही लोकतंत्र की स्थापना आदिवासियों को नाकार कर नहीं हो सकती है। 
न्यूज@ई-मेल
ग्लैडसन डुंगडुंग
देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री व नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने नक्सलियों/माओवादियों से बार-बार अपील करते हुए कहा है कि वे बंदूक छोड़कर लोकतंत्र का हिस्सा बनें और समाज की मुख्यधारा से जुड़ें। वहीं माओवादियों की दुनिया में बेखौफ घुमने के लिए चर्चित केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने तो यहां तक कह डाला कि माओवादियों के विचार और मुद्दे दोनों सही हैं, लेकिन रास्ता गलत। क्या इसका मतलब यह समझा जाना चाहिए कि बंदूक को अलग कर देने से नक्सली/माओवादी सही हैं? क्या देश में सŸाा चलाने के लिए ही बंदूक बनाया गया है? माओवादी भी तो वही कह रहे हैं कि वे बंदूक के बल पर देश में सŸाा हासिल करेंगे। साथ ही जिनके साथ अन्याय हुआ है, उन्हें न्याय देंगे? इसलिए सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह होना चाहिए कि क्या बंदूक के बगैर लोकतंत्र संभव है?
अब बात लोकतंत्र के महापर्व चुनाव से शुरू करते हैं। क्या इस देश के आम चुनाव का एक भी ऐसा उदाहरण है जो बिना बंदूक, गुंडा और पैसों का हुआ हो? आजकल तो एक मामूली सा वार्ड सदस्य को भी लोग ईमानदारी से नहीं चुन सकते। उसे भी पैसा, बंदूक और गुंडा का सहारा लेना पड़ता है। क्या इन चीजों के बगैर चुनाव की कल्पना की जा सकती है? यानी यह कहना गलत नहीं होगा कि बंदूक के बगैर लोकतंत्र का महापर्व नहीं मनाया जा सकता। आजकल तो धर्मगुरु जो लोगों को दिन-रात शांति का पाठ पढ़ाते हैं और वोट बैंक को प्रभावित करते हैं, भी बंदूक रखते हैं।
देश, राज्य या किसी जिले में प्रशासन चलाने की बात कर लीजिए, तस्वीर साफ हो जायेगी। यह बात इसलिए जरूरी है क्योंकि सरकार बंदूक उठाकर न्याय की लड़ाई लड़ने वाले नक्सली/माओवादियों को बंदूक छोड़कर मुख्यधारा में शामिल करना चाहती है। यानी बंदूक ही उन्हें मुख्यधारा से अलग करती है। लोग कह सकते हैं कि कई राज्य नक्सल प्रभावित हैं, जहां बिना सुरक्षा बल के जाना संभव नहीं है। लेकिन, क्या नक्सलवाद की उत्पत्ति से पहले बिना बंदूक के सरकार चलती थी? इसका मतलब यह है कि बंदूक के सहारे ही सरकार चलती है। जब बंदूक में इतनी ताकत है तो फिर कोई बंदूक क्यों छोड़ना चाहेगा? प्रश्न यह भी है जब सरकार नक्सली/माओवादियों को बंदूक छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने की अपील करती है तो फिर मुख्यधारा से जुड़े ताकतवर लोगों के पास बंदूक क्यों है? और उन्हें क्यों मुख्यधारा का हिस्सा माना जाना चाहिए?
देश में औद्योगिक विकास की तस्वीर बंदूक की गोली से रक्तरंजित है। यहां संसद द्वारा बनाये गये कानून को ताक पर रखकर सरकारों ने बंदूक के बल पर आदिवासी और अन्य रैयतों की जमीन छिन ली है। जब लोग संविधान के अनुच्छेद 19 का उपयोग करते हुए पेसा कानून, वन अधिकार कानून या जमीन संबंधी कानूनों को लागू करने की मांग करते हैं, तो उनपर गोली चलायी जाती है। इसके सैकड़ों उदाहरण हमारे देश में मौजूद हैं। यह बात कैसे कोई भूल सकता है कि 19 आदिवासियों को उडि़सा के कलिंगनगर में टाटा कंपनी को जमीन देने के लिए गोलियों से उड़ा दिया गया? झारखंड के कोईकारो, काठीकुंड और गुआ गोलीकंड आज भी आदिवासियों के जेहान में हैं। बंदूक का दुरूपयोग किस तरह से सरकारी तंत्र करती है, यह किसी से छुपी नहीं है। फिर भी देश के नेता लोकतंत्र के नाम पर लोगों को गुमराह करते हैं।
यहां सवाल यह भी है कि क्या बंदूक हिंसा का प्रतीक है या शांति का! अगर यह हिंसा का प्रतीक है तो स्वाभाविक है कि बंदूक पकड़ने वाले सभी हिंसक होंगे। चाहे बंदूक पकड़ने वाला पुलिस व सेना की वर्दी में हो या नक्सली लिबास में! यह कैसे संभव है कि सुरक्षा बलों की बंदूक से शांति निकले और नक्सलियों/माओवादियों की बंदूक से हिंसा? कानून देखें तो अंतर सिर्फ इतना है कि सरकार ने ताकतवर लोगों को बंदूक पकड़ने के लिए लाईसेंस निर्गत किया है और गरीब बिना लाईसेंस के बंदूक उठाये हुए हैं। गरीबों से पहला सवाल पूछा जायेगा कि उन्हें बंदूक किसलिए चाहिए? क्या उन्हें झोपड़ी, गाय-बकरी और मुर्गी की सुरक्षा के लिए बंदूक की जरूरत है? और अगर वे लाईसेंसी बंदूक रख भी लेते हैं, तो उनका जेल जाना या उनसे बंदूक लुटना तय है।
इतिहास बताता है कि हम बंदूक के उपयोग को लेकर काफी स्लेक्टिव हैं। अगर बंदूक का उपयोग ताकतवर लोग करें तो यह गुनाह नहीं है, लेकिन गरीब इसका उपयोग नहीं कर सकता। गरीबों के पास बंदूक होने का मतलब अपराध से वास्ता! क्योंकि गरीब उस बंदूक का उपयोग उन ताकतवर लोगों के खिलाफ करेगा, जिन्होंने उसका शोषण किया है। ऐसे देखा जाये तो गांवों में कौन बंदूक रखता है? गांव का मुखिया या दबंग व्यक्ति।
जब देश के नेताओं पर बंदूक से हमला होता है तो उसे लोकतंत्र पर हमला कहा जाता है। छŸाीसगढ़ की घटना इसका ज्वलंत उदाहरण है। लेकिन जब वही हमला आम जनता या सुरक्षा बलों पर होता है तब उसे लोकतंत्र पर हमला नहीं कहा जाता। उसे प्रतिदिन घटने वाला आम मामला कहा जाता है। यह कैसा लोकतंत्र है, जिसमें सिर्फ चुने हुए लोग लोकतंत्र बन जाते हैं और बाकी लोगों की कोई अहमियत नहीं होती? क्या आम जनता के हाथ में लोकतंत्र सिर्फ पांच वर्षों में एक दिन रहता है और बाकी दिनों में वे लोकतंत्र के शिकार बन जाते हैं? उन्हें अपनी चुनी हुई सरकार की पुलिस लाठी-डंडा से पीटती है, गोली चलाती है और यातना देती है।
हमारे देश में सŸाा का विकेन्द्रिकरण आधुनिक लोकतंत्र का सबसे बड़ा सकारात्मक योगदान है, लेकिन उसी लोकतंत्र ने भ्रष्टाचार को प्रत्येक व्यक्ति, परिवार और गांव के अंदर घुसा दिया है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर नेता वोट खरीदते हैं। वोटर वोट बेचवा है, जिसमें पूंजिपति शेयर बाजार की तरह पैसा लगाते हैं। इसे लोकतंत्र की निर्मम हत्या नहीं तो और क्या कहेंगे? चुनाव बीतते ही नेता खास और वोटर आम हो जाता है। और वहीं लोकतंत्र का खात्मा हो जाता है। पूंजिपतियों को मुनाफा पहुंचाने के लिए नीति, नियम और कानून बनाये जाते हैं तथा जनहित में बने कानूनों को ताक पर रख दिया जाता है। लोकतंत्र का सही अर्थ लोगों का, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा सिर्फ सिद्धांत में ही रह गया है। क्या देश के नेताओं के पास इसका जवाब है?
हकीकत यह है कि राज्य का गठन ही बंदूक के बल पर हुआ है। इसलिए इस लोकतंत्र से शांति की उम्मीद करना बेईमानी है। चाहे नेता कुछ भी कह दे, लेकिन आधुनिक लोकतंत्र बंदूक के बगैर संभव है? आज प्रत्येक गरीब, दलित और आदिवासियों को यह क्यों लगने लगा है कि इस लोकतंत्र में उन्हें कभी भी न्याय नहीं मिलेगा, जबतक कि वे स्वयं सŸाा हासिल नहीं करते हैं? क्या दुनिया के इस महान लोकतंत्र को इसका जवाब नहीं देना चाहिए? आज गरीब सŸाा पाने के लिए बंदूक का सहारा ले रहे हैं, क्योंकि उनके पास वोट खरीदने को पैसा नहीं है। साथ ही बूथ कब्जा करने के लिए गुंडे पालने की उनकी हैसियत भी नहीं है। सच्चाई यह है कि माओवादी/नक्सली उन्हें मुफ्त में बंदूक और प्रशिक्षण दे रहे हैं, इसलिए वे उनकी संगत में चले जा रहे हैं। यह निश्चित तौर पर लोकतंत्र के लिए खतरा है।
आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा में देश के नेताओं से कहा था कि आप हमें लोकतंत्र का पाठ नहीं पढ़ा सकते, क्योंकि हमारे यहां लोकतंत्र सदियों से मौजूद है। आदिवासी अपना नेता चुनने के लिए न तो पैसा और न ही बंदूक का उपयोग करते हैं। लेकिन, देश ने आदिवासियों की एक न सुनी, जिसका परिणाम यह हुआ कि आधुनिक लोकतंत्र ने प्रकृति और समाज दोनों को खोखला कर दिया। दुनिया में बंदूक के बगैर सच्चा लोकतंत्र अगर कहीं है, तो वह सिर्फ आदिवासी समाज के पास। इसलिए जो लोग सही मायने में लोकतंत्र चाहते हैं, उन्हें आदिवासियों से सीखना चाहिए। कारण कि सही लोकतंत्र की स्थापना आदिवासियों को नाकार कर नहीं हो सकती है।
ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और ये विचार लेखक के अपने हैं।

बुधवार, 5 मार्च 2014

इस ‘बकलोली’ का मतलब!

  • मामला झारखंड के विशेष राज्य के दर्जा का
राजीव मणि
राज्यों के पिछड़ेपन के लिए मानदंड निर्धारित करने के लिए गठित रघुराम राजन कमेटी की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद झारखंड को पिछड़ा राज्य घोषित करवाने का श्रेय लेने के लिए राजनीतिक दलों के बीच होड़ मच गयी है। आजसू पार्टी ने तो ‘पहली लड़ाई अलग राज्य, अगली लड़ाई विशेष राज्य’ का नारा भी दिया था और इसी को आधार बनाकर पार्टी इसका श्रेय लेना चाहती है। यह अलग बात है कि झारखंड आंदोलन के समय यह पार्टी अस्तित्व में ही नहीं थी। वहीं भाजपा कह रही है कि असली लड़ाई तो उन्होंने ही लड़ी है। जेवीएम ने तो रघुराम राजन कमेटी के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। जेवीएम के अनुसार, यह विशेष राज्य के लिए चल रही मुहिम पर ब्रेक लगाने की साजिश है। वहीं सŸाारूढ़ दल झामुमो अलग राज्य के साथ-साथ विषेष राज्य का श्रेय भी पूर्णरूप से खुद लेना चाहती है।
राजनेताओं के बीच खुशी कुछ ऐसी है, मानो उन्होंने सबकुछ हासिल कर लिया हो। कुछ लोग तो यह भी सवाल कर रहे हैं कि सिर्फ पिछड़ा राज्य घोषित होने पर खुश होने जैसी क्या बात हो सकती है! निश्चित रूप से झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा मिलना चाहिए, लेकिन गंभीर सवाल कई हैं, जिसका जवाब खोजा जाना चाहिए।
चूंकि विशेष राज्य का दर्जा का संबंध आर्थिक पैकेज से है, इसलिए बात इसी से प्रारंभ होनी चाहिए। क्या सचमुच झारखंड को आर्थिक पैकेज की जरूरत है? राज्य की आर्थिक स्थिति, प्रति व्यक्ति आय और विकास के सूचकांक तो यही कहते हैं, लेकिन फंड का उपयोग कुछ और कहता है। प्रतिवर्ष राज्य सरकार बड़े पैमाने पर केन्द्रीय राशि सरेंडर करती है। वर्ष 2002-03 से लेकर वर्ष 2011-12 तक राज्य सरकार कुल 10,961.6 करोड़ रुपये सरेंडर कर चुकी है। इस पैसे से राज्य के मूलभूत संरचना का विकास हो सकता था। दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या सरकार आर्थिक पैकेज के सही इस्तेमाल की गारंटी दे सकती है? यह सवाल इसलिए है कि राज्य में सरकारी पैसे की लूट मची हुई है। राज्य के विभिन्न जिलों से 4,400 करोड़ रुपये का हिसाब सरकार को नहीं मिल पाया हैै। यह पैसा कहां गया, इसका जवाब है क्या? ऐसी स्थिति में सवाल यह भी है कि क्या सरकार के पास विशेष आर्थिक फंड के उपयोग का खाका तैयार है?
विशेष राज्य के सवाल पर प्रमुख दलीलों में से एक यह भी महत्वपूर्ण है कि यह राज्य आदिवासी बहुल है। यहां के आदिवासी विकास के पायदान पर काफी पीछे हैं। लेकिन, सवाल यह है कि जो लोग आदिवासियों के नाम पर विशेष राज्य का दर्जा हासिल करना चाहते हैं, क्या सचमुच वे आदिवासियों के हितैषी हैं या उनके नाम पर मलाई खाना चाहते हैं? आंकड़ा बताता है कि यह मलाई खाने की तैयारी है। मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डंुगडुंग कहते हैं कि जो लोग राज्य में गैर आदिवासी मुख्यमंत्री, अनुसूचित क्षेत्र को खत्म करने, पैसा कानून के खिलाफ, सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट को खत्म करने का अभियान चलाते हैं, वे आदिवासियों के हितैषी कैसे हो सकते हैं?
ग्लैडसन डंुगडुंग कहते हैं कि ट्राईबल सब प्लान को लीजिए, तस्वीर और ज्यादा साफ हो जायेगी। संविधान के अनुच्छेद 275 के तहत, केन्द्रीय सहायता प्राप्त करना आदिवासियों का संवैधानिक अधिकार हैै। झारखंड मंे ट्राईबल सब प्लान के तहत आदिवासियों के विकास एवं कल्याण के लिए वर्ष 2006-07 से लेकर वर्ष 2011-12 तक कुल 27,141.83 करोड़ रुपये आवंटित किये गये, जिसमें से 21,494.02 करोड़ रुपये खर्च किये गये एवं 5647.81 करोड़ रुपये केन्द्र सरकार को वापस कर दिये गये। इस पैसे का उपयोग आदिवासी एवं आदिवासी बहुल इलाके के विकास के लिए खर्च करना था, लेकिन ट्राईबल सब प्लान का अधिकांश पैसा दूसरे मदों में खर्च किया जा रहा है जो आदिवासी हक पर सीधा लूट है। जब आदिवासियों के पैसे की लूट मची है, तो क्या विशेष राज्य का दर्जा मिलने से उन्हें कुछ हासिल होगा? 
झारखंड को आर्थिक पैकेज इसलिए मिलना चाहिए, क्योंकि राज्य में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का फायदा राज्य को नहीं मिल रहा है, केन्द्र सरकार सबकुछ ले जा रही है। सवाल यह भी है कि क्या सचमुच इस पैकेज से जरूरतमंदों का कल्याण और विकास होगा या फिर से राज्य के विकास के नाम पर मलाई कोई और खायेगा? इसके लिए प्रभावशाली नेतृत्व, कर्तव्यनिष्ठ नौकरशाह और रचनात्मक राजनीति की जरूरत ज्यादा है, जिससे प्रदेश का पूर्ण विकास होगा। सवाल यह भी है कि क्यों गरीब राज्य के राजनेता, नौकरशाह, ठेकेदार, बिचैलिए और सरकारी कर्मचारियों की बिल्डिंग, गाड़ी और बैंक बैलेंश में भारी इजाफा होता जा रहा है, जबकि लोग एवं राज्य की स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा है।

मंगलवार, 4 मार्च 2014

आदिवासियों को मिटाने में लगी झारखंड सरकार

राजीव मणि
कुदागड़ा आठ टोलों का एक राजस्व गांव है। यह झारखंड के रांची जिलान्तर्गत नामकुम प्रखंड के हेसो जंगल में स्थित है। यहां 347 आदिवासी परिवारों की कुल आबादी लगभग 1,500 है। इन आदिवासियों की आजीविका कृषि और वन पर आधारित है। अधिकांश लोगों के पास कुछ रैयती और वन भूमि है, जिसपर वे वर्षों से खेती करते आ रहे हैं। 2008 में वन अधिकार कानून इनके जीवन में एक नई उम्मीद लेकर आया था। गांव में ग्रामसभा के अन्तर्गत वन अधिकार समिति का गठन हुआ और 36 आदिवासी परिवारों ने वनभूमि पर अधिकार हेतु दावा-पत्र पेश किया। जांच-पड़ताल के बाद ग्रामसभा ने उसे नामकुम अंचल कार्यालय को सौंप दिया, लेकिन सिर्फ 6 परिवारों को ही जमीन का पट्टा मिल सका। उसमें भी कहीं 2 डिसमिल तो कहीं 5 डिसमिल दर्ज है, जबकि उन्होंने 5 से 10 एकड़ जमीन का दावा-पत्र जमा किया था। कुदागड़ा के आदिवासियों ने 26 जनवरी, 2011 को 700 एकड़ जंगल पर सामुदायिक अधिकार का दावा-पत्र भी पेश किया। इसके बाद नामकुम के अंचलाधिकारी ने उनका दावा-पत्र शेखर जमुअर की अनुमंडलस्तरीय समिति को पेश किया। समिति ने उन्हें वन का क्षेत्रफल 70 से 100 एकड़ रखने का सुझाव दिया। जब वे नहीं माने, तो उन्हें बताया गया कि उनका फाईल कार्यालय में खो गया है इसलिए वे पुनः दावा-पत्र पेश करें। उन्होंने पुनः दावा-पत्र पेश किया, लेकिन उसपर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डंुगडुंग ने पूरी सच्चाई से पर्दा उठाते हुए बताया कि कुदागड़ा की कहानी झारखंड में वन अधिकार कानून, 2006 की सही तस्वीर पेश करती है। सरकारी आंकड़ा से स्थिति और भी ज्यादा स्पष्ट होती है। झारखंड में 30 जून, 2013 तक 42,003 लोगों ने दावा-पत्र पेश किया था, जिसमें से सिर्फ 15,296 लोगों को 37,678.93 एकड़ से संबंधित जमीन का पट्टा दिया गया है, लेकिन राज्य में आजतक एक भी सामुदायिक अधिकार का पट्टा निर्गत नहीं हुआ है। यह शर्मनाक है, क्योंकि झारखंड को सामुदायिक अधिकार का चैंपियन होना चाहिए था। अंग्रेजों ने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908 के माध्यम से मुंडारी खूटकट्टी जैसे सामुदायिक अधिकार को कानूनी मान्यता देकर इतिहास रचा था और यह राज्य देश में एकमात्र आदिवासी राज्य के रूप में भी जाना जाता है। लेकिन, हकीकत में झारखंड के पड़ोसी राज्य आदिवासियों को वन एवं वनभूमि पर अधिकार देने के मामले में बहुत आगे निकल चुके हैं। वन अधिकार कानून के तहत ओडि़सा में 5,24,162 दावा-पत्र पेश किया गया था, जिसमें 3,20,149 पट्टे निर्गत किये जा चुके हैं, जिसमें 3,18,375 व्यक्तिगत एवं 1,774 सामुदायिक पट्टे शामिल हैं। इसी तरह छŸाीसगढ़ में 4,92,068 दावा-पत्र पेश किये गये थे, जिसमें से 2,15,443 पट्टे निर्गत किये गये हैं, जिसमें 2,14,668 व्यक्तिगत एवं 775 सामुदायिक पट्टे शामिल हैं।
यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि झारखंड सरकार आदिवासियों को वन एवं वनभूमि पर अधिकार क्यों नहीं देना चाहती है? इस सवाल का जवाब सारंडा जंगल में बहुत असानी से ढूंढ़ा जा सकता है। ग्लैडसन डंुगडुंग बताते हैं कि यहां देश का 25 प्रतिशत लौह-अयस्क मौजूद है। हो और मुंडा आदिवासी सारंडा जंगल में कई दशकांे से वन और वनभूमि पर अधिकार हासिल करने की लड़ाई लड़ रहे हैं और उनपर पुलिस अत्याचार जारी है। 1980 से 1958 के बीच 19 पुलिस फायरिंग की घटना घटी, जिसमें 36 आदिवासी मारे गये एवं 4,100 लोगों को पेड़ काटने के आरोप में जेल भेजा गया था। वन अधिकार कानून के तहत अधिकार हासिल करने के लिए 17,000 आदिवासियों ने दावा-पत्र भरा था, जिसे अंचल कार्यालय, मनोहरपुर से गायब कर दिया गया। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि सारंडा जंगल में 12 खनन कंपनियां 50 जगहों पर लौह-अयस्क का उत्खनन कर रही हैं और उत्खनन हेतु 19 नयी माईनिंग लीज दी गई है। ऐसी स्थिति में अगर आदिवासियों को वन एवं वनभूमि पर अधिकार दे दिया जाता है, तो लौह-अयस्क का उत्खनन बड़े पैमाने पर प्रभावित होगा।
दूसरा मसला यह है कि वन विभाग देश का सबसे बड़ा जमींदार है और वह अपनी जमींदारी नहीं छोड़ना चाहता। वन अधिकार कानून, 2006 लागू होने के साथ ही वन विभाग का अस्तित्व समाप्त हो जाना चाहिए था, लेकिन सरकार की मंशा साफ नहीं है। वन विभाग के अधिकारी आदिवासियों को जंगल पर अधिकार इसलिए नहीं देना चाहते, क्योंकि वे टिम्बर माफिया और पोचरों से मिलकर करोड़ो रुपये कमा रहे हैं। इतना ही नहीं, वन विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को मुफ्त में लाखों रुपये की लकड़ी अपने घरों को सजाने के लिए मिलती है। तीसरी बात यह कि वनभूमि या वन पर उत्खनन करनेवाली कंपनियों से सरकार को भारी रकम राजस्व के रूप में फोरेस्ट क्लियारेंस के समय मिलता है, जिसे सरकार किसी भी कीमत पर आदिवासियों के हाथ में जाने नहीं देना चाहती है। असल में जंगल खनिज पदार्थों से भरे पड़े हैं, इसलिए आदिवासियों को अधिकार से वंचित रखा जा रहा है।
यहां वन अधिकार कानून, 2006 का औचित्य समझना जरूरी है। केन्द्र सरकार ने पहली बार कानूनी रूप से स्वीकार किया कि आदिवासियों के साथ अन्याय हुआ है, इसलिए कानून द्वारा उन्हें न्याय देना इसका मूल मकसद था। अतीत में जीवन जीने के संसाधन खासकर जल, जंगल और जमीन पर आदिवासी समुदाय का अधिकार था। वे अपने रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए इनका उपयोग करते थे। अंग्रेज जब भारत आये, तो उन्हें समझ में आया कि यहां प्राकृतिक संसाधनों का आकूत भंडार है, जिससे काफी पैसा कमाया जा सकता है। और इसके लिए उन्हें सŸाा पर काबिज होना जरूरी था। सŸाा हथियाने के साथ ही कानून को हथियार बनाकर संसाधनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया गया। 1793 में पहली बार ‘परमानेंट सेटलमेंट एक्ट’ लाया गया। इससे आदिवासियों की जमीन जमींदारों के हाथ में चली गई। 1855 में जंगल पर भी कब्जा करने हेतु सरकारी नीति लायी गयी। यहां तक कहा गया कि जंगल सरकार का है और उसपर कोई व्यक्ति अपना अधिकार नहीं जता सकता है। 1865 में भारत में पहला ‘वन अधिनियम’ बना। उसके बाद तो मानो वन कानूनों की बारिश सी हो गई। जहां भी उन्हें कानून में छेद दिखाई देता, नये कानून लाये गये। वन अधिनियम, 1927 द्वारा सभी तरह के वनोपज पर लगान लगा दिया गया।
जब देश आजाद हुआ, तो स्थिति और बद से बदतर हो गई। 1952 में ही राष्ट्रीय वन नीति लायी गई। इसके तहत आदिवासियों को जंगल उजाड़ने हेतु दोषी ठहराया गया। 1972 में वन्यजीवन की सुरक्षा के नाम पर कानून बनाया गया और लाखों लोगों को जंगल से हटा दिया गया। वर्ष 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने तो यहां तक कहा कि आदिवासी ही जंगलों को बर्बाद करते हैं, इसलिए अगर जंगल बचाना है तो आदिवासियों को जंगलों से बाहर निकालना जरूरी है। 1980 में तो हद हो गया। ‘वन संरक्षण अधिनियम’ लागू किया गया, जिसमें जंगल का एक पŸाा तोड़ने को भी अपराध की श्रेणी में रखा गया। इस तरह से जंगल को आदिवासियों से छिन लिया गया। 2002 में भारत सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम एवं सर्वाेच्य न्यायालय के आदेश को हाथियार बनाते हुए जंगलों में रह रहे 1 करोड़ आदिवासियों को समय सीमा के अन्दर जंगलों को खाली करने का आदेश दे दिया। आदेश में कहा गया कि आदिवासी वन एवं वन्यजीवन की सुरक्षा के लिए खतरा बन गए हैं। इस प्रक्रिया में देश भर से 25,000 आदिवासी परिवारों के घर तोड़ दिए गए, खेतों में लहलहाते अनाज बर्बाद कर दिए गए। असम और महाराष्ट्र में तो स्थिति यह थी कि बूलडोजर और हाथियों को इस कार्य में लगाया गया। वहीं जंगलों को बर्बाद करने वाले ठेकेदारों, पूंजिपतियों, नौकरशाहों और सŸाा के दलालों पर एक उंगली तक नहीं उठाई गई। इतना ही नहीं, एक लाख आदिवासियों पर फर्जी मुकदमा कर जेलों में बंद कर दिया गया था। प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल करना, वन विभाग द्वारा जुल्म व अत्याचार एवं राज्य प्रायोजित हिंसा आदिवासियों के खिलाफ अन्याय नहीं तो और क्या है।

स्वार्थ में अम्बेडकर को भी नहीं छोड़ा

राजीव मणि
बांका। वोट के लिए महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित करने का खेल यहां वर्षों पुराना है। बाद में उस प्रतिमा की क्या स्थिति होती है, यहां देखा जा सकता है। बांका जिले के चान्दन प्रखंड के धनुवसार पंचायत के महादलित लोहटनियां गांव में संविधान निर्माता डाॅ. भीमराव अम्बेडकर की प्रतिमा लगायी गयी थी। गनौरी रविदास बताते हैं कि गांव के किनारे प्रतिमा स्थापित करने के लिए एक सज्जन ने एक कट्ठा जमीन दे दी। यहीं बाबा साहब की प्रतिमा लगा तो दी गयी, लेकिन उसके बाद से इसकी सुध लेने कोई नहीं आया। डाॅ. अम्बेडकर की प्रतिमा अब टूटने लगी है। जिस प्लेटफाॅर्म पर प्रतिमा स्थापित है, उसपर बच्चे चढ़कर खेलते-बैठते हैं। आसपास जानवर सैर करते हैं।
चिंगारी ग्रामीण विकास केन्द्र के रवि रौशन कहते हैं कि राजनेताओं और एनजीओ के इस खेल में महापुरुष अपमानित हो रहे हैं। पहले तो महादलित टोलों को एक सोची-समझी चाल के तहत ऐसे काम के लिए चुना जाता है, और फिर वहां प्रतिमा स्थापित कर उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जाता है। प्रतिमा स्थापित करने का यह खेल नेता वोट बैंक के लिए और एनजीओ वाले फंड के लिए कर रहे हैं। इसपर तुरन्त रोक लगाये जाने की जरूरत है।

हजरत टीपू सुल्तान का दरबार और बाबू

पटना। पश्चिमी गांधी मैदान के पास है जिलाधिकारी महोदय का आवास। और इससे ठीक सटे ही हजरत टीपू सुल्तान का दरबार। लोग कहते हैं कि भले ही सीएम या डीएम के जनता दरबार में आपकी बात ना सूनी जा रही हो, लेकिन यहां आने वालों की हर मनोकामना पूरी होती है। इस दरबार में झार-फूंक भी किया जाता है। ताबीज भी दी जाती है। खासकर जुमे के दिन यहां काफी भीड़ रहती है। यहां आने वाले सभी लोगों का मुंह मीठा करवाया जाता है। इसे आस्था कहें या कुछ और, आने वाले ज्यादातर लोग पढ़े-लिखे और पैसे वाले होते हैं। यह भी बताया जाता है कि चुनाव का समय आते ही यहां भीड़ बढ़ जाती है। कुर्ता-पायजामा और टोपी पहने बाबू लोग यहां लाल-पीली बत्ती वाली गाड़ी से उतरते हैं। वैसे दरबार के बगल में ही गन्ने का जूस बेचने वाला बताता है कि आने वाले कितने लोगों की मुरादें पूरी होती हैं, यह तो वे ही जानें।

पिता अपने पुत्र से 15 साल छोटा

जहानाबाद। पिता अपने पुत्र से 15 साल छोटा है। यह करिश्मा राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत स्मार्ट कार्ड बनाने वाले कम्प्यूटर आॅपरेटर ने कर दिया। कम्प्यूटर आॅपरेटर की इस गलती का खामियाजा भुगत रहे हैं रामभवन मोची। रामभवन जहानाबाद के सिकरिया पंचायत के कड़ौना गांव स्थित चमन बीघा में रहते हैं। रामभवन का स्मार्ट कार्ड संख्या 10330120012000817 है। इसमें जन्म वर्ष 1967 दिखाया गया है। वहीं उनके पुत्र विरेन्द्र दास का भी स्मार्ट कार्ड बना है। विरेन्द्र का स्मार्ट कार्ड संख्या 10330120012000840 है। इसमें जन्म वर्ष 1952 अंकित है। इस तरह पिता अपने ही पुत्र से 15 साल छोटा हो गया। रामभवन बताते हैं कि ऐसा हो जाने से उन्हें काफी परेशानी हो रही है। इसे सुधरवाने के लिए पिता-पुत्र काफी प्रयास कर चुके हैं। इसके बावजूद जन्म वर्ष को नहीं सुधारा गया है।

दलित मुद्दों पर विधायकों के साथ विचार-विमर्श

पटना। बिहार औद्योगिक संघ, पटना के सभागार में पिछले दिनों दलित अधिकार मंच एवं एक्शन एड, पटना के संयुक्त तत्वावधान में बिहारी दलितों की बुनियादी समस्याओं को लेकर विचार-विमर्श किया गया। इस अवसर पर अनुसूचित जाति/जनजाति उपयोजना के तहत आवधिक सूचनापत्र बिहार बजट वॉच का विमोचन उदय नारायण चैधरी एवं अन्य अतिथियों के द्वारा किया गया। विमोचन के बाद रोबिन रवि एवं रमेश कुमार ने कहा कि यह पत्रिका वंचित समुदायों तथा सरकारी तंत्रों के बीच खाइयों को पाटने का एक सशक्त माध्यम है। साथ ही यह अनुसूचित जाति/जनजाति उपयोजना के बारे में संवाद, विचारों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया को बढ़ावा देगी।
मुख्य अतिथि उदय नारायण चैधरी ने कहा कि आपने तीन मुद्दों, भूमि अधिकार, अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम एवं विशेष अंगीभूत उप-योजना को शामिल किया है, जो काबिले तारीफ है। समय बदला है, परिस्थितियां बदली हैं, हमें भी बदलना होगा। उन्होंने कहा कि आजादी के 65 साल के बाद भी हम अपने अधिकारों से वंचित हैं, उसकी जड़ में पूंजीपति हैं। मैं चाहता हूं कि हमारे दलित समाज से ज्यादा से ज्यादा जनप्रतिनिधि चुनकर आयें और सरकार में भागीदार बन कार्य करें, तभी दलितों का विकास हो पायेगा। साथ ही, ग्रामीण क्षेत्रों में क्षमतावान युवाओं को पहचानना होगा।
कपिलेश्वर राम ने कहा कि वर्तमान में भूमि अधिकार, अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम एवं विशेष अंगीभूत उप-योजना की स्थिति एवं उसके क्रियान्वयन में अस्पष्टता है। हम बिहार विधान सभा के सदस्यों से अपेक्षा करते हैं कि अपने अनुभव और नीति निर्धारण करने में अपना अमूल्य सुझाव देंगे। एक्शन एड, पटना के क्षेत्रीय प्रबंधक विनय ओहदार ने भूमि अधिकार से संबंधित तमाम अधिनियमों, बिल, केस अध्ययनों के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि अभिवंचित वर्गों की स्थिति आज भी बहुत खराब है। यदि हम भूमि अधिकार की बात करें, तो हमारी हकमारी हुई है। इसके अलावा आईसीडीएस, मनरेगा, इंदिरा आवास योजना, सामाजिक सुरक्षा योजना, दलित बच्चों के लिए पौष्टिक आहार योजना, सभी, की राशि में जमकर बंदरबांट किया जा रहा है। हमारे बीच के लोग ही 80 प्रतिशत राशि डकार जा रहे हैं। जदयू विधायक मनीष कुमार ने कहा कि आज भी डाॅ0 भीमराव अंबेडकर के विचार काफी प्रासंगिक हैं। उन्होंने कहा कि सबसे पहले लोगों को शिक्षित करना होगा, ताकि वे अपने अधिकारों की लड़ाई खुद लड़ सकें।
इस अवसर पर संजय पाण्डेय, सत्येन्द्र कुमार, अरविंदो बनर्जी, रमेश कुमार, रोबिन रवि, दिनकर राम, विनय ओहदार, वसंत कुमार, कपिलेश्वर राम, दीपचंद दास ने भी अपने-अपने विचार व्यक्त किये।