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मंगलवार, 24 दिसंबर 2013
बुधवार, 18 दिसंबर 2013
महादलितों का दर्द है ‘शुभी की दीवाली’
Dr. Lalji Prasad Singh |
राजीव मणि
हमारे समाज में दलितों, महादलितों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। इनमें कइयों का गुजारा तो कचरा से ही चलता है। कचरा के ढेर से कागज, प्लास्टिक, लोहा चुनकर कबाड़ में बेचकर। चंद रुपए मिल जाते हैं। सब्जी-भात का इंतजाम हो जाता है। काम किया तो खाना मिला, नहीं किया तो फांका! पर्व-त्योहार और जश्न की बात तो सोचना भी इनके लिए पाप है। हां, दारू इनके जीवन का मुख्य हिस्सा है। गंदगी इनकी पहचान है। अभाव में रहना इनकी आदत बन गयी है!समाज के इन्हीं किरदारों को अपनी कहानी ‘शुभी की दीवाली’ में उतारा है डाॅ. लालजी प्रसाद सिंह ने। ‘शुभी की दीवाली’ एक बाल कहानी है। डाॅ. सिंह इस कहानी में बाल मनोविज्ञान को दर्शाने में काफी हद तक सफल रहे हैं। वहीं समाज और खुद से लड़ता एक महादलित परिवार काफी कुछ कह जाता है। इन सब के बीच एक महिला की मनोदशा दिखाने में भी डाॅ. सिंह सफल रहे हैं।
लाजमनी ने माथा ठोक लिया - ‘‘सुबह-सुबह कहां से चढ़ा के आ गया - अपना माथा खराब करके ?’’
चोट पहुंची तो तिलमिला उठा चेचर। चुनौती भरे लहजे में बोला - ‘‘विश्वास नहीं होता तो मेरा मुंह सूंघ के देख लो। आज मैंने दारू को हाथ तक नहीं लगाया है - कसम से।’’
‘‘पियक्कड़ों की बात की क्या और कसम की क्या! बात-बात में कसम खाते और बात-बात में कसम तोड़ते।’’
लाजमनी ने अविश्वास करते हुए आदेश दिया - ‘‘शुभी, सूंघो तो जरा अपने बाप का मुंह। पीके अल-बल बोल रहा और कह रहा कि हाथ तक नहीं लगाया है।’’
कहानी के केन्द्र में दीवाली है। और इसी के बहाने समाज के यथार्थ को सामने लाया गया है। कहानी की चंद पंक्तियां ही काफी कुछ कह देती हैं।
‘‘बस-बस! अब बस भी करो।’’ लाजमनी गरम हो उठी - ‘‘मैं समझ गई - जिन्दगी में तुमसे कुछ नहीं होने वाला। दिन भर निठल्लई करते और दारू पीके बतकटई करते चलते।’’ वह अपनी किस्मत को कोसने लगी - ‘‘हे भगवान! मैं कैसे ऐसे मर्दाना के साथ बंध गई! यह सिर्फ बच्चे पैदा करना जानता और उनसे कचना चुनवाना। काम तो छू के नहीं करना चाहता। उस पर बोली तो पहाड़ जैसी!’’
चेचर सफाई देना चाहता - ‘‘तुम बेकार मुझ पर गरमा रही हो। लाखों-करोड़ों लोगों के घरों में रात को सालों भर दीये नहीं जलते।’’
कहानी की भाषा आम बोलचाल की है। सरल और सुगम्य। पति-पत्नी के बीच का संवाद ठीक वैसा ही, जैसे इन महादलितों के घरों में बात होती है। इन सब के बीच बच्चों की मनोदशा देखने लायक है।
चेचर चनचना रहा था - ‘‘कामचोर कहीं के! चले हैं दीवाली मनाने! घर में अन्न-दाना का ठिकाना नहीं और -? भाग्य आजमाने के लिए (जुआ खेलने के लिए) बंगराम के पास कुछ पैसा रख छोड़ा था, उसे भी उड़ा-पड़ा दिया!’’
वह सब देखकर शुभी को तो पहले ही जैसे काठ मार गया था। चेचर उसकी तरफ बढ़ा - ‘‘का रे, उसके साथ तू भी सनकने गई थी ?’’ कहते हुए उसने उसके गाल में एक जोरदार थप्पड़ जमा दिया। शुभी ऐसी गिरी कि हिली-डुली भी नहीं। लाजमनी उसके पास गई तो दहाड़ मार के रो उठी - ‘‘अरे बचाओ ए लोगों, मेरी शुभिया को मार डाला। अरे निस्सतनिया चेचरा, मार डाला रे मेरी बिटिया को।’’
शुभी को डाॅक्टर के पास ले जाया जाता है। दवा-दारू की जाती है। और अंततः ठीक तो हो जाती है, लेकिन अंधी होकर।
कहानी का यह एक कड़वा सच है। इन लोगों में अधिकांश की मौत बीमारी या किसी तरह के हादसे से ही होती है। कुछेक ही अपनी पूरी जिन्दगी देख पाते हैं।
लालजी साहित्य प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया है। छपाई साफ-सुथरी है। आवरण आकर्षक है। कीमत 60 रुपए रखी गयी है।
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